स्वार्थ

मित्रों हमने पिछले लेख में विश्व कल्याण परिषद के अंतर्गत परमार्थ नाम से एक संक्षिप्त लेख दिया था। आज हम आपको अध्यात्म शक्ति अनुसंधान केंद्र से सम्बंधित एक लेख दे रहे हैं। इसमें जानेगें कि योग के सिद्धान्तों से, हम अपने आप को,अपने जीवन को कैसे बदलें, जिस तरह एक योगी को भारतीय संस्कृति मे पूर्ण शारिरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति बताया है, वह लक्ष्य केसे प्राप्त हो।  योग के अंतर्गत ही चेतना, परमात्मा व आत्मा का विषय भी आ जाता है। दोस्तों भारतीय संस्कृति में कई प्रकार के योग बतलाये हैं, लेकिन उनको हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, एक ध्यानयोग और दूसरा ज्ञानयोग, यह दो प्रकार के योग ही भारतीय संस्कृति की मुख्य धरोहर है। ज्ञान योग का सबसे उत्तम, भारत में सबसे अधिक प्रचलित ग्रन्थ हैं गीता। विश्व को गीता का ज्ञान देने वाले श्री कृष्ण व उनका ज्ञान, भारत के कण कण में बसा है। उन्होंने अर्जुन को स्पष्ट कहा कि,  1 कर्म कर फल की इच्छा मत कर 2 कर्म का परिणाम निश्चित आना है। और उन्होंने यह भी कहा अर्जुन को, 3 अगर तुम सन्यासी बनने की सोच रहे हों तो कर्म तो सन्यासी का भी बनता है। अतः अपने क्षत्रिय धर्म को मत त्याग और युद्ध कर।और अर्जुन की यही समस्या है, वह युद्ध करना नही चाहता, लेकिन कृष्ण विवश कर रहे हैं युद्ध करने को। अर्जुन को यह समझ नहीं आ रहा कि नृशंस हत्या करने से कोनसा धर्म सिद्ध हो रहा है, जो कृष्ण कह रहे हैं कि युद्ध कर, यही तेरा धर्म है। अर्जुन ही नही बल्कि धर्मराज युधिष्ठिर, भीम सहित समस्त पाण्डव, समस्त कौरव, भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य सहित समस्त प्रकृति अचम्भित है कि, कृष्ण तो अपने आप मे एक ज्ञानपुंज है, और आश्चर्य हे कि यह धर्म की कैसी व्याख्या कर रहे हैं। आखिरकार अर्जुन को अपना रूप दिखाना पड़ा, तब जाकर प्रकृति, विश्व, देश, समाज,व्यक्ति और अर्जुन शान्ति को प्राप्त हुये, और तब ही भीषण रक्तपात हुआ, भीषण संघार हुआ। औऱ इसी के बीच, कृष्ण ने गीता ज्ञान के नाम से कुछ प्राकृतिक, कुछ सैद्धान्तिक नियम बताये अर्जुन को। जिनको अपनाकर, व्यक्ति अपने कर्मो से,अपने आप को अलग मानता है। कर्म शरीर करता हे तो उसी के साथ शरीर भी छूट जाता है, शरीर के साथ ही मन भी छूटता है  यहां कृष्ण ने इसे कर्मयोग कहा है। अर्जुन की परम्परागत  बुद्धि में एक नये धर्म का उदय हुआ। यहां अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि मार, सबको मारना ही तेरा धर्म हैं, जब अर्जुन ने गाण्डीव रख दिया और स्पष्ट मना कर दिया, कि मैं किसी भी हालत में युद्ध नही करूँगा, संकेत, मतलब साफ था, कृष्ण पर पूर्ण विश्वास नही था। कृष्ण समझ गए कि अर्जुन की परम्परागत बुद्धि मै, जहां परमार्थ ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जहां परोपकार ही सर्वोपरि है, जहाँ त्याग,  उदारता, जहां व्यक्ति, समाज, देश, विश्व ओर प्रकृति के प्रति परोपकार की भावना, जहां पाना नही, लेना नही, बल्कि देना ही धर्म है। त्याग ही धर्म है, भोग नही। और अर्जुन ने कृष्ण को यह भी स्पष्ट कर दिया कि, यह सब मेरे अपने है, हे केशव इनसब को मारकर अगर मुझे राज्य मिल भी जाता है तो इन सब के खून से सना वह राज्य मेरे को सुख देने  वाला कैसे हो सकता है, कैसे होगा। अर्जुन ने गाण्डीव रख दिया,ओर बोला हे केशव  मैं केसे भीष्म पितामह को मारूँगा,  कैसे इन हाथों से गुरु द्रोणाचार्य को मारूँगा, लेकिन कृष्ण ने एक नही चलने दी,एक मनुष्य के रूप में, जब अर्जुन नही माना तो उसे विराट रूप दिखाकर, धर्म का एक अलग रूप बताया यहां धर्म की रक्षा के लिए, दूसरे के प्राण लेना धर्म बतलाया है।



 धर्म की रक्षा के लिए, कृष्ण के अनुसार अपने बीबी बच्चे, मां बाप, भाई बहन कुटुम्ब सम्बन्धी परिवार अपना हो या पराया,कोई भी प्राणी हो, अगर धर्म बच रहा है, तो मार दो। व्यक्ति, समाज, देश, विश्व, प्रकृति को नष्ट कर दो, लेकिन धर्म को बचा लो। स्पस्ट कहा है कृष्ण ने। अर्जुन ने, जब विराट रूप देखा, जब जाना कि स्वयं परमात्मा ही कह रहे हैं, तो फिर कोई संशय नही रहा, कोई अपराधबोध नही रहा । इस लड़ाई मेंं, लडाई के परम्परागत सिद्धांत, नियम भी टूटे।  पुरानी परम्पराये, मान्यतायें टूटी और नई और संशोधित मान्यताये, परम्परायें लागू हुई। धर्म की नई व्याख्या हुई। जिसमें कहा कि धर्म सर्वोपरि है और उस धर्म को जोड़ा स्वंय से, स्वंय के हित से, परमार्थ की भावना तिरोहित हुई और स्वार्थ की भावना सर्वोपरि हुई। धर्म की कई मान्यताये, परम्परा, सिद्धांत खण्डित हुये,  जिसमें मुख्य है कृष्ण का अर्जुन को सन्यास के लिए मना करना, वरना इसके पहले लोग साधू सन्यासी बनकर, व्यक्ति, समाज, विश्व और प्रकृति की निःस्वार्थ सेवा का संकल्प लेते थे, लेकिन कृष्ण ने इस परम्परा को ही खत्म कर दिया,



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